Thursday, February 10, 2011

चासनाला

(धनबाद से बीस किलोमीटर दूर एक कोयला क्षेत्र है चासनाला. २७  दिसंबर १९७५ की रात को एक विस्फोट होता है खान के ३०० फुट नीचे और ७० लाख गैलन प्रति मिनट के हिसाब से पानी घुस जाता है खादान में और करीब ३००० मजदूर कभी ऊपर नहीं आ पाते. सरकारी आकड़ों में ये केवल ३७२ हैं. यह कोई दिल्ली तो नहीं है कि मनाई जाएगी इस हादसे की बरसी या फिर  से खुलेगी इसकी फ़ाइल भोपाल गैस कांड की तरह. गुमनाम चासनाला शहीदों को समर्पित यह कविता )

हिन्दुओंनेट.कॉम से साभार 


आम सी ही रात थी
चाँद आसमान में खिला था
तारे झिलमिल कर रहे थे
माँ लोरिया सुना कर
सुला रही थी बच्चों को
बूढ़े पिता खांस रहे थे बाहर के कमरे में
और जोर जोर से भौंक रहा था
धौरे का कुत्ता
चासनाला में 
२७ दिसम्बर १९७५ की
सर्द रात को

बत्ती घर से
उठी थी लगभग ३००० बत्तियां
और झिलमिल हो उठा था
चासनाला का भूगर्भ
लगभग चार सौ फुट नीचे
टिमटिमाती बत्तियों से

हाथ में थामे
जिलेटिन का बैटन
स्टील के लम्बे छड़ों से
मापी जा रही थी
खदान की और गहराई
कोयले की परतें
खोखलेपन की आवाज़ को
और निरक्षरों के अनुभव की
अनसुनी कर
किया गया था एक विस्फोट
जो साबित हुआ अंतिम ही

एक विस्फोट और
सत्तर लाख गैलन प्रति मिनट की दर से
दामोदर के सैलाब ने
भर दिया चासनाला का गर्भ
और समाहित हो गयीं
वे तीन हज़ार बत्तियां
काले स्याह चेहरों के बीच 
झिलमिलाती पुतलियाँ और
उनमे भरे सपने

महीनो लग गए
चासनाला खान से
निकालने  में पानी
वर्षों  तक  कंकाल  मिलते  रहे खान से
चैता और विरहा के आलाप भी 
गूंजते से सुनाई  देते  थे चासनाला खान में

वह जमाना नहीं था
लाइव रिपोर्टिंग का
फिर भी बिके थे
अखबार पत्रकार
अधूरी रह गईं
माँ की लोरियां
खांसते बूढ़े
गुम से हो गए
अचानक से
बड़े हो गए बच्चे
और पलाश, पुटुष, अमलताश
चुप से हो गए

मुर्गों की लड़ाई पर
पैसे फेंकते निर्द्वंद चेहरे
गायब हो गए
काली माँ का मंदिर
जहाँ रोज़ झुकाते थे
हजारों मजदूर अपना माथा
धर्म जाति से परे
खाली रहने लगा

फिर बनी
जांच समितियां
हुए धरने प्रदर्शन
हटा दिए गए रातो रात
हाजिरी रजिस्टरों के पन्ने
और खाली करा दिए गए
धौरे, मोहल्ले
और फिर
हो गया सामान्य सब कुछ
चासनाला में

बस हँस नहीं पाया 
हंसोड़ बत्तीबाबू फिर कभी
२७ दिसंबर १९७५ की रात के बाद 

11 comments:

  1. प्रिय कुमार पलाश जी
    सस्नेहाभिवादन !

    चासनाला पढ़ कर हृदय द्रवित हो उठा ।
    बेहद मर्मस्पर्शी ! आपने विभीषिका का ऐसा चित्र खीचा है ,मानो आपने सब कुछ अपने सामने घटते हुए देखा हो …

    २७ दिसंबर १९७५ की रात की उस भयावह विभीषिका में काल का ग्रास बने उन दिवंगत ३००० मजदूर आत्माओं को श्रद्धांजलि … … …
    बहुत उदास हो गया है मन … लेकिन जीवन को निरंतर चलते रहना है …

    आपको सपरिवार बसंत पंचमी सहित बसंत ॠतु की हार्दिक बधाई और मंगलकामनाएं !
    - राजेन्द्र स्वर्णकार

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  2. पलाश जी
    नमस्कार !
    .... हृदय द्रवित हो उठा ।

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  3. वसन्त की आप को हार्दिक शुभकामनायें !
    कई दिनों से बाहर होने की वजह से ब्लॉग पर नहीं आ सका
    बहुत देर से पहुँच पाया ....माफी चाहता हूँ..

    ब्लॉग को पढने और सराह कर उत्साहवर्धन के लिए शुक्रिया.

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  4. ऐसे हादसो की त्रासदी कोई भुक्तभोगी ही समझ सकता है……………बाकि प्रशासन या सरकार पर कोई असर नही होता…………बेहद मर्मांतक्।

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  5. आदरणीय कुमार पलाश जी
    जिन्दगी भी क्या फलसफा है ....कभी रेत का ढेर है तो कभी ...एक चिराग दोनों में कोई ख़ास अंतर नहीं ..अगर टिक जाये तो बहुत कुछ है ..नहीं तो कुछ भी नहीं ...यह कविता- कविता नहीं बल्कि मानव ह्रदय की वह करुण पुकार है जिसके लिए वो चीखता तो है लेकिन उसकी चीख की भरपाई नहीं हो सकती ...उसके आंसुओं से निकलता है उसके दिल का गुबार, और फिर क्या करती है अपनी सरकार यह भी आपने बता दिया ..ऐसे हालत में क्या मोल है जिन्दगी का ...क्या ....? बस एक प्रश्न एक ह्रदय विदारक घटना का वर्णन पढ़कर आँखें नम हो गयी ..बस ..

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  6. बस हँस नहीं पाया
    हंसोड़ बत्तीबाबू फिर कभी
    २७ दिसंबर १९७५ की रात के बाद......


    ऐसे हादसों की विभीषिका गाँव या शहर नहीं बल्कि संस्कृतियाँ मिटा देती है. उस हादसे के शिकार लोगों को श्रद्धांजलि और उनके परिवारों को सहानुभूति. संवेदनशील लेखनी की छाप छोडती रचना . शुभकामना .

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  7. बन्धु, स्मृतियों से गुम हो चुका चासनाला काण्‍ड फिर से जीवंत कर दिया आपने और साथ ही झँझोड दिया हमारे अंतर्मन को| ऐसी कालजयी कविता कम ही पढ़ने को मिलती है| बधाई पलाश भाई|

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  8. palash ji,
    saamne drishya upasthit ho gaya, atiuttam lekhan, shubhkaamnaayen.

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  9. पलाश जी ... ये दुर्घटना आज भी मन पर अंकित है ... बहुत दर्दनाक वाक्य था ये ... सहज ही शब्दों में उतार दिया है दर्द आपने .... बहुत प्रभावी ....

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  10. प्रिय पलाश,
    आपकी रचना "चासनाला" पढ़ी थी लेकिन टिप्पणी नहीं दे पाया था.आपकी इस रचना ने मेरे भीतर की उस बैचनी को बाहर ला दिया है जो उस समय मेरे कोमल मन पर काफी समय तक हावी रहा था.उस समय रेडियो पर ही जानकारी आया करती थी और हम रेडियो से कई दिनों तक इस आस में चिपके रहे थे कि कोई अच्छी खबर आएगी ,मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ. इसने मेरे बालमन को काफी आहात किया था.आज जब आपकी कविता देखी तो अनायास ही सबकुछ आँखों के सामने तैर गया.
    "बत्ती घर से
    उठी थी लगभग ३००० बत्तियां
    और झिलमिल हो उठा था
    चासनाला का भूगर्भ
    लगभग चार सौ फुट नीचे
    टिमटिमाती बत्तियों से"
    इस बिम्ब से उस काली रात का सच सामने आ खड़ा होता है.अद्भुत चित्रण. उनको याद रखने के लिए के लिए आभार. आपकी यही सोच उनके लिए आमजन कि सच्ची श्रद्धांजलि है.इसके लिए आधिकारिक बरसी का कोई अर्थ नहीं रह जाता है.यह एक मिथक है जो कभी ख़त्म नहीं होगा.

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