( कभी एक महत्वपूर्ण शहर रहा होगा चतरा, जो अभी झारखण्ड के सबसे पिछड़े इलाकों में गिना जाता है और माओवादियों के कब्ज़े में है... चतरा को समर्पित एक कविता )
महानदी घाटी में
लाजवंती नदी जो बहती है
फल्गू की ओर
'बुद्धं शरणम् गच्छामि' के जलाघोष के साथ
कहती है चतरा का इतिहास
कड़ियाँ जोड़ते हुए
पत्ते बूढ़े हो रहे हैं
तेजी से चतरा में
कि कभी बुद्ध आये थे यहाँ
यहीं उनकी काकी दीवार बन
खड़ी हुई थी
सिद्धार्थ और बुद्ध के बीच
पता नहीं
सोते हुए चतरा को
मालूम भी है कि नहीं
चतरा को
यह भी नहीं पता कि
'राजा राम मोहन राय '
कभी सब-रजिस्ट्रार रह कर गए थे
और छोड़ गए थे
कुछ रौशनी जिससे भागा था अँधेरा
वर्षो तक
आज फिर तिमिर घना हो गया है
जब मंगल पाण्डेय का विगुल घोष
कर रहा था उद्वेलित
मेरठ की धरती को
हो रही थी तैयारी
दिल्ली फतह की
एक और मंगल पाण्डेय
कहिये 'जय मंगल पाण्डेय'
शहीद हो गया था
फांसी तालाब के सामने
और मरने से पहले
अमर कर गया था ५३ जवान
महारानी विक्टोरिया की फौज के
कहाँ दर्ज है
इतिहास की किताबों में
यह पन्ना
फिर ना जाने
चली कैसी हवा
चतरा के पलाश से
झड़ने लगे आग
पुटुष के रंगीन फूल
हो गए रक्तरंजित
सेमल के फाहे का रंग
कहाँ रह गया सफ़ेद
यहाँ
चतरा में
एक सरकार के फेल
होने के बाद
चल रही है
दो दो सरकारें
और दो पाटों के बीच
पिस रहा है चतरा
जैसे जमीदोज हुआ था
चतरे का किला सन १७३४ में
एक कल्पना का
नाम है चतरा
जो आज सो रहा है
खोल कर आँखें
भविष्य की गति से
मंथर, बहुत मंथर
आज नहीं तो कल
समय पूछेगा जरुर
कहाँ है चतरा !
सार्थक लेखन ....इतिहास की पृष्ठ भूमि पर उत्कृष्ट रचना ...कभी तो देना पड़ेगा जवाब कि कहाँ है चतरा..
ReplyDeleteAise kitne hi shahar aur unki gaatha itihaas ke pannon mein darj nahi hai ... Bahut lajawaab rachna hi shahar ki zameen talaash karti ...
ReplyDeleteप्रिय पलाश,
ReplyDeleteइतिहास के कैनवास पर भावनाओं को अद्भुत तरीके से पिरोया है. उनसे जिन सवालों को उभरने दिया है उससे रचनाकार की चिंता तो उजागर होती ही है साथ ही ये काफी प्रासंगिक और विचारणीय भी है.ये पाठक के मन को अनायास ही आंदोलित कर जाते हैं.
"फिर ना जाने
चली कैसी हवा
चतरा के पलाश से
झड़ने लगे आग
पुटुष के रंगीन फूल
हो गए रक्तरंजित
सेमल के फाहे का रंग
कहाँ रह गया सफ़ेद
यहाँ"
इस अत्यंत संवेदनापूर्ण बिम्ब-प्रधान रचना के लिए बधाई.
बहुत बढ़िया कविता पलाश.. इतिहास और वर्तमान को देखने की तुम्हारी दृष्टि पृथक है...
ReplyDeleteइतिहास की पृष्ठ भूमि पर उत्कृष्ट बहुत बढ़िया रचना| धन्यवाद|
ReplyDeleteपलाश! आपकी 'नही' नहीं नई कविता पढ़ी. 'चतरा' के इतिहास को बतलाती ये कविता और इतिहास के पन्नों से लुप्त इसकी पीड़ा को भी महसूस किया.नही मालूम वो दूसरा 'मंगल पांडे' कौन था किन्तु...इतिहास में कहीं दर्ज नही उसका नाम.
ReplyDeleteसिद्दार्थ और राजा राम मोहन राय का भी इस धरती से जुडाव रहा है या अल्प आलिक संबंध जान कर अच्छा लगा.एक कवि होने के नाते आपका दर्द कुछ कम नही.छंदों की आवश्यकता भी नही दर्द की व्याख्या करने के लिए. अफ़सोस की इतने समय बाद मेरा आपके ब्लॉग पर आना हो पाया,टीचर हूँ समझ सकते हो मेरी अपनी मजबूरियां.साल भर से स्र्वेज़ में ही व्यस्त रही.और.......जब तक डूबने की चाह ना हो किसी की कोई रचना नही पढ़ती.अपने व्यूज़ भी तभी दे पाती हूँ.इसलिए माफ कर देना.
कुछ तो है आपकी कलम में!
बहुत सुन्दर रचना लिखा है आपने ! हर एक शब्द दिल को छू गयी! बेहतरीन प्रस्तुती!
ReplyDeleteनिश्बद हूँ-- उत्कृष्ट रचना। बधाई।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना .
ReplyDeleteचर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी प्रस्तुति मंगलवार 15 -03 - 2011
ReplyDeleteको ली गयी है ..नीचे दिए लिंक पर कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..
http://charchamanch.uchcharan.com/
इतिहास को वर्तमान की नज़र से देखने का बहुत सुन्दर प्रयास..बहुत सशक्त रचना..
ReplyDeleteइस ऐतिहासिक रचना के लिए आपको ढेरों बधाइयाँ...इतिहास के माध्यम से वर्तमान की पीड़ा को बहुत खूब शब्द दिए हैं आपने...
ReplyDeleteनीरज
कई चतरा इतिहास में दफ़न हो गए हैं
ReplyDeletePalash bhai apki sirf isi kavita ko nahi padha balki sari kavitayen padhi.Aap bahut achha likh rahe hain.Shubhkamnaon ke sath apko follow kar raha hun.
ReplyDeleteमन भर आया.... मेरा भी रिश्ता है बिहार की जमीन से ...वाकई मे देश की बहुत सी समस्या सरकार की उदासीनता व नकारात्मक रवैये की वजह से सुलझ नि पा रही है ....
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग तक आने के लिए व हौसला बढाने के लिए धन्यवाद.
मंजुला
एक कल्पना का
ReplyDeleteनाम है चतरा
जो आज सो रहा है
खोल कर आँखें
भविष्य की गति से
मंथर, बहुत मंथर
आज नहीं तो कल
समय पूछेगा जरुर
कहाँ है चतरा !
भावपूर्ण अभिव्यक्ति ..एक गंभीर प्रश्न ....शुक्रिया आपका
नव-संवत्सर और विश्व-कप दोनो की हार्दिक बधाई .
ReplyDeleteपूरी कविता ही अद्भुत है बधाई कुमार जी
ReplyDeleteमहानदी घाटी में
ReplyDeleteलाजवंती नदी जो बहती है
फल्गू की ओर
'बुद्धं शरणम् गच्छामि' के जलाघोष के साथ
कहती है चतरा का इतिहास
कड़ियाँ जोड़ते हुए
पत्ते बूढ़े हो रहे हैं
तेजी से चतरा में
कि कभी बुद्ध आये थे यहाँ
यहीं उनकी काकी दीवार बन
खड़ी हुई थी
सिद्धार्थ और बुद्ध के बीच
पता नहीं
सोते हुए चतरा को
मालूम भी है कि नहीं
अद्भुत कविता बधाई और शुभकामनाएं कुमार पलाश जी
इतिहास की जानकारी देती बेहतरीन रचना।
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