सुना होगा
मुहावरा आपने
आग से खेलना
लेकिन
हम झारियावाले
आग जी रहे हैं
पीढ़ियों से
आग ओढना
बिछौना आग
आग पर चलना
आग से खेलना
हमारा शौक नहीं है
मजबूरी है
जो अफसर, सरकार, मंत्री के
बदलने के साथ
नहीं बदली
बढ़ती ही गई आग
पेट में
आँखों में
ह्रदय में
और कोयले में
झरिया
जहाँ पीपल के नीचे के हनुमान जी की मंदिर में
कुस्ती लड़ते थे दद्दा
सुना है अंग्रेजो के भी पटक दिया करते थे
जहाँ ठेहुनिया दे के चलना सीखे थे
बाबूजी हमारे
और हम एक धौरा से दुसरे धौरा
साइकिल हांकते रहते थे दिन भर
जिसको हमारे पसीने की गंध का भी पता है
अब नहीं रहेगा
ध्वस्त कर दिया जायेगा झरिया
और झरिया में पलने वाले सपने
झरिया
एक शहर नहीं है
देशवासियों
एक घर है
जो जल रहा है
जो टूट रहा है
बिखर रहा है
विस्थापित हो रहा है
शहर का दर्द शब्दों में और रचना में उतर आया है, बहुत बढ़िया.
ReplyDeletebhai main bhi jharkhand se bolong karta hoon, samajh sakta hoon iss sahar ke dard ko........
ReplyDeletebahut bhavuk karne wali rachna..
Khubsurat Pankhtiyan hain
ReplyDeletestabdh ker gai aapki rachna... yaani ek sach
ReplyDeleteहर रंग को आपने बहुत ही सुन्दर शब्दों में पिरोया है, बेहतरीन प्रस्तुति ।
ReplyDeleteकुमार पलाश जी, कुछ भी लिख देने वालों के युग में आप जैसे रचनाधर्मी का होना संतोष देता है|
ReplyDeleteआपसे निवेदन है दूर के मित्रों को भी अपनी कलम की विशिष्टता से रु-ब-रु होने का मौका मुहैया कराएँ| ओपन बुक्स ऑनलाइन पर ऑनलाइन महा इवेंट शुरू हो रहा है १ नवंबर से| आप मित्र मंडली सहित वहाँ पधारें और आयोजन की शोभा बढ़ाएँ|
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दर्द उभर कर आया है……………और जहाँ जन्म लिया होता है उसका तो अलग ही महत्त्व होता है।
ReplyDeleteभाई पलाश जी आपकी कविता वास्ताव् में रुला रही है. दिल को छू रही है.. चूँकि झारखण्ड , धनबाद, झरिया से जुड़ा हूँ.. दर्द भीतर तक महसूस हो रहा है.. शुभकामना..
ReplyDeleteएक बार फिर आपने विषय अच्छा लिया,अपने आसपास का लिया पर कविता का निर्वाह नहीं कर पाए। लगा कविता बहुत जल्दी खत्म हो गई।
ReplyDeleteबहुत दमदार और सार्थक अभिव्यक्ति है भाई।
ReplyDeleteआप कहते हैं कि:
सभी फूलों की नियति एक सी होती है, अंतत: मुरझाना है
मैं कहता हूँ कि
पलाश जन्मता ही इसीलिये है कि कुछ न कुछ कर जाना है।
पलाश जी!
ReplyDeleteकोयले की खान से निकला हुआ हीरा है यह आपकी रचना... झरिया तो कभी आग से मुक्त हुआ ही नहीं... और माफिया की आग ने तो भयंकर रूप से ग्रसित किया है इस शहर को... यह कविता नहीं एक हक़ीक़त है!! कोयले सी काली हक़ीक़त!!
बेहतर...
ReplyDeleteek dukhmay sach majbooti se kavita me aakar kara ho gaya hai.
ReplyDeleteपूरा नगर अन्दर से खोखला कर ध्वस्तप्राय कर दिया है खनन ने। सुन्दर मनन।
ReplyDeleteझरिया के माध्यम से हर कसबे क़ि दास्ताँ कह दी है आपने .... नया दृश्य खींच दिया ...
ReplyDeletehar jhariya ki yahi vyatha hai,jo har aaag ke aage khak ho jati hai....
ReplyDeleteindupuri goswamiji ne email se kaha:
ReplyDeleteओह ! क्या ये वो ही शहर हैं जहाँ कोयले सुलगते रहते हैं और उपर मानवीय
बस्तियां बसी है? क्या ब्लॉग पर फोटो भी दिए हैं आपने?
बेटे की शादी की तयारी के कारन समय नही निकाल पा रही हूँ.यही पढ़ कर व्यूज़
दे रहे हूँ. विस्थापितों की पीड़ा उनके साथ अपने बिछुडे घर और शहर को
जीना और अंत समय तक अपने से दूर ना कर पाना कम दर्दनाक नही.पर......आज़ादी
के समय से ले के आज तक देश के किसी न किसी भाग में इस पीड़ा को आज भी लोग
झेल रहे है.
आपकी कविता में उभरा दर्द शब्दों द्वारा भावों की अभिव्यक्ति मात्र नही
आपका, आप जैसों का दर्द है..........
इस रचना पर कोई टिप्पणी देना इसकी आग के ताप के सामने ठहर नहीं पाएगा, इस लिए मिश्र जी की एक कविता की कुछ पंक्तियां ...
ReplyDeleteआग का आकार
हाथों में अधूरा है,
इसे भीतर तक उतरने दो।
दे रहा हूं
एक आकृति आग को
रोशनी में धार धरने दो।
आप भी अवसर मिले तो,
खोजना भीतर
आग जो मां ने भरी
है घुट्टियों से।
चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी रचना 02-11-2010 मंगलवार को ली गयी है ...
ReplyDeleteकृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया
कृपया वर्ड वेरिफिकेशन हटा लें ...टिप्पणीकर्ता को सरलता होगी ...
वर्ड वेरिफिकेशन हटाने के लिए
डैशबोर्ड > सेटिंग्स > कमेंट्स > वर्ड वेरिफिकेशन को नो करें ..सेव करें ..बस हो गया .
बहुत खूब...एक जलते शहर की मार्मिक अभिव्यक्ति...
ReplyDeleteनीरज