(धनबाद मुख्यालय से कोई पंद्रह किलोमीटर दूर कुसुंडा क्षेत्र में एक कालोनी हुआ करता था सौ बीघा. वहीँ कोयले खदानों, कोयले, पुटुष की झाड़ियों, बारूद घर, बत्ती घर, चानक (जहाँ से कोयला काटने वाले मजदूर धरती के अन्दर जाते हैं ) आदि के बीच पला बढ़ा. अब सौ बीघा नहीं है. उसी सौ बीघा को समर्पित यह कविता .)
सौ बीघा
नहीं पता
किसने कब दिया तुम्हें
यह नाम लेकिन तुम्हार विस्तार
कहीं अधिक था
तुम्हारे नाम से.
तुम्हारी कोख में
हर वक्त पलती थीं
हजारों जिंदगियां धौरों* में बटे तुम
वास्तव में एक ही थे
एक ही रक्त प्रवाहित होता था
और साँसें भी एक साथ चलती थीं
ऊपरी धौरे से
नहीं पता
किसने कब दिया तुम्हें
यह नाम लेकिन तुम्हार विस्तार
कहीं अधिक था
तुम्हारे नाम से.
तुम्हारी कोख में
हर वक्त पलती थीं
हजारों जिंदगियां धौरों* में बटे तुम
वास्तव में एक ही थे
एक ही रक्त प्रवाहित होता था
और साँसें भी एक साथ चलती थीं
ऊपरी धौरे से
निचले धौरे के बीच
एक ही हवा बहती थी
एक ही ख़ुशी से
खुश होते थे तुम
जैसे पगार के दिन
दशहरा/दिवाली/होली/ईद में
एक ही रंग में रंगे होते थे तुम
निचले धौरे के सबसे आखिर में
था एक माजर
पहली बार कव्वाली सुनी थीं वहीं
और
चैता/विरहा/रामलीला और
परदे वाला सिनेमा
सब याद हैं मुझे
एक ही हवा बहती थी
एक ही ख़ुशी से
खुश होते थे तुम
जैसे पगार के दिन
दशहरा/दिवाली/होली/ईद में
एक ही रंग में रंगे होते थे तुम
निचले धौरे के सबसे आखिर में
था एक माजर
पहली बार कव्वाली सुनी थीं वहीं
और
चैता/विरहा/रामलीला और
परदे वाला सिनेमा
सब याद हैं मुझे
चानक के
बड़े बड़े चक्कों के शोर से
सदा उनींदा रहता था
सौ बीघा
बत्ती घर के
रैकों पर चार्ज होती
हजारों बत्तियां
युद्ध के मैदान में हथियार सी लगती थी
उनकी जांच करते और
उनके नंबर नोट करते
बत्ती बाबू
सौ बीघा के हर घर की
मांग के जैसे सिन्दूर थे
क्योंकि खदान के भीतर
बत्ती बुझ जाने का मतलब होता था
जिन्दगी का बुझ जाना
तुम्हारे बीचो बीच
हुआ करता था
एक बारूद घर
जहाँ मनाही थी
जाने की
रहस्य ही बना रहा
वह बारूद घर
ख़त्म होने तक
याद करो पंडित स्कूल
और शनिवार की आखिरी कक्षा
जहां हुआ करता था
सांकृतिक कार्यक्रम
अपनी पहली कविता
वहीं सुनायी थी मैंने
वहीं सुनायी थी मैंने
स्कूल के पीछे
शिव मंदिर के
पंडित जी की छोटी बेटी
मुस्कराती थी शर्माती थी
मुझे देखकर
शिव मंदिर के
पंडित जी की छोटी बेटी
मुस्कराती थी शर्माती थी
मुझे देखकर
जब खबर आयी थी कि
निचला धौरा नहीं रहेगा
इतना रोया था समूचा सौ बीघा
कि कई दिनों तक
नहीं जला था कोई चूल्हा
लेकिन
कहाँ चलता है इस देश में
मजदूरों का राज जो
चलता सौ बीघा में
झोपड़ियां उजड़ी
टीन टप्पर समेत
लादे गए लोग
ट्रकों में और
बसा देने के नाम पर
उजाड़ दिए गए
जहाँ हँसी गूंजती थी
बसा देने के नाम पर
उजाड़ दिए गए
जहाँ हँसी गूंजती थी
बुलडोज़र घरघराने लगे
नहीं रहा निचला धौरा
फिर भी तुम मूक
बने रहे सौ बीघा ही
ऐसा ही कुछ
ऊपर धौरा के साथ भी हुआ
अब तो नाम भी
नहीं रहा तुम्हारा
बस यादें हैं
सौ बीघे की
बारूद घर की
स्कूल की
माजर कव्वाली की चैता की
विरहा की
खदानों की कोख में बिताये बचपन की
नहीं रहा निचला धौरा
फिर भी तुम मूक
बने रहे सौ बीघा ही
ऐसा ही कुछ
ऊपर धौरा के साथ भी हुआ
अब तो नाम भी
नहीं रहा तुम्हारा
बस यादें हैं
सौ बीघे की
बारूद घर की
स्कूल की
माजर कव्वाली की चैता की
विरहा की
खदानों की कोख में बिताये बचपन की
बत्ती बाबू की जो
खादान के भीतर
बत्ती ख़राब होने की घटना के बाद से
कभी नहीं दिखे किसी को
बत्ती ख़राब होने की घटना के बाद से
कभी नहीं दिखे किसी को
और
शर्माने वाली लड़की की
आज जब
याद आ रही है तुम्हारी
सौ बीघा
सोचता हूँ
कितना विशाल था
तुम्हारा ह्रदय
कई सौ बीघे में फैला हुआ
पलाश भाई अपने परिवेश और जमीन को यादों के इतिहास में देखने की एक ईमानदार कोशिश। आपके अंदर कोयले की उर्जा है,उसे बुझने मत देना। आप जानते हैं न कच्चा कोयला धुंआता,फिर वह जलकर बिना धुंआ वाला बनता है लेकिन फिर जलने पर कच्चे कोयले से कहीं अधिक उष्मा देता है। अभी आपकी कविता में धुंआ है,कोई बात नहीं। बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएं।
ReplyDeleteकविता के बीच के हिस्से में थोड़ा सा झोल है, उसे कभी ठीक कर लीजिए। कुछ वर्तनी की गलतियां भी, वे शायद टायपिंग की गलतियां हैं।
ReplyDeleteअहसासों का बहुत अच्छा संयोजन है ॰॰॰॰॰॰ दिल को छूती हैं पंक्तियां ॰॰॰॰ आपकी रचना की तारीफ को शब्दों के धागों में पिरोना मेरे लिये संभव नहीं
ReplyDeleteसार्थक और बेहद खूबसूरत,प्रभावी,उम्दा रचना है..शुभकामनाएं।
ReplyDeleteपलाश जी!मातृभूमि को स्मरण करना और उसके साथ जुड़ी हर छोटी बड़ी बात... आपकी भावनात्मक सोच को सलाम...
ReplyDeleteइतना ही कहता हूँ...बहुत सटीक!
ReplyDeletebahut hi badhiyaa
ReplyDeleteअस्सी के दशक में समता संगठन के काम से सिजुआ और कतरास जाना होता था । परिवेश जीवन्त हो गया । लेकिन फिर मानव का स्थान लेते पे-लोडर और मजदूरों द्वारा माफियाओं की हनक का मुकाबला और अब निजीकरण का दौर -छँटनी भी टीस के साथ याद आए।
ReplyDeleteसुन्दर कविता।
shaaandaar!! behtareen!!
ReplyDeleteबहुत मर्मस्पर्शी रचना है ...विस्थापित लोगों का दर्द साफ़ झलकता है ...बत्ती बाबू के महत्त्व को बहुत अच्छे से लिखा है .
ReplyDeleteआज जब
ReplyDeleteयाद आ रही है तुम्हारी
सौ बीघा
सोचता हूँ
कितना विशाल था
तुम्हारा ह्रदय
कई सौ बीघे में फैला हुआ.......
बहुत ही मर्मस्पर्शी रचना . कविता पढ़कर खदान का परिवेश जीवंत हो उठा .
visthapiton ke dard ko bahut khoobsoorti se vyakt kiya hai aapne.....
ReplyDeletePadma Srivastava to me
ReplyDelete"पलाशजी बहुत अच्छा लिखते हैं आप,जारी रखिये.दीपावली मुबारक हो .हम तमाम व्यंजन के साथ http://healandhealth.com/hi/ लाये हैं आपके परिवार के लिये कृपया इस साइट पर जाये।"
Dr Divya Srivastava to me
ReplyDelete''Palash ji, I am unable to open your blog. Tried many times, but failed. I have read the poetry . It's nicely written. The beautiful description of the 100-beegha land made me nostalgic somewhere.
Thanks."
badhiya hai.dipawali ki shubhakamanayen.
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteआपका लेखन बहुत प्रभाव शाली है...लिखते रहें...साहित्य को आपसे बहुत आशाएं हैं...मेरी शुभ कामनाएं स्वीकार करें...
ReplyDeleteनीरज