(कभी कोयला मजदूरों को अपने गाँव घर जाते देखिये. उनका उत्साह देखते बनता है. उनके इस उत्साह का गवाह होता है धनबाद स्टेशन. मजदूरों के उत्साह को समर्पित यह कविता - 'धनबाद स्टेशन' )
मौर्या एक्सप्रेस
जो इन दिनों हटिया रांची से चल कर
गोरखोपुर तक जाती है
अब प्लेटफार्म नंबर सात पर आएगी, की
इस उद्घोषणा के साथ ही
अलमुनियम की पेटी उठाये
सैकड़ों औरत और मर्द
भागते हैं
कुछ उपरी पुल से
कुछ फांद कर रेलवे लाइन
उठाकर अलमुनियम की पेटी
पानी का बोतल
हाथ में पकडे पत्नी और बच्चों का हाथ .
तमाम असुविधाओं के बीच
भूल जाते हैं
जलते कोयले की धधक
नथुनों में फसी काली धूल
सूदखोरों का आतंकी चेहरा
मजदूर यूनियन की जबरन वसूली
होती है उनके चेहरे पर
गाँव जाने की ख़ुशी
खेतों की गंध
फसल की महक
त्यौहार की चमक
और जीवन की इस वार्षिक यात्रा का
स्वयं उत्सव होता है
पहला पड़ाव धनबाद स्टेशन
इस से पहले कि
मौर्या एक्सप्रेस का उत्सव शांत हो
आ जाती है
गंगा दामोदर जो जाती है गया होकर पटना
और फिर से उत्सव मय हो जाता है
धनबाद स्टेशन का दूसरा प्लेटफार्म .
अच्छी अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteवाह वा...इंसानी हौसलों को क्या ख़ूबसूरती से पेश किया है आपने इस अद्भुत रचना द्वारा...जितनी भी प्रशंशा की जाए कम होगी...लाजवाब रचना.
ReplyDeleteनीरज
सुन्दर अभिव्यक्ति .
ReplyDeleteशुरू की २ पंक्तियाँ दिखाई नहीं दे रहीं कृपया उनका फॉण्ट थोडा बड़ा कर दें और रंग थोडा गहरा.
यह उत्सव चलता रहे।
ReplyDeleteपलाश खिलता रहे
लोगों के मन में
भाव खुशियों का पलता रहे।
मार्मिक कविता ,
ReplyDeleteईश्वर से यही प्रार्थना है कि जल्दी ही बिहार को वो दर्जा मिले कि लोग वहाँ से दूसरी जगहों पर जाएँ वार्षिक उत्सव मनाने ,वक़्त तो लगेगा पर होगा जरूर ऐसा .
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ReplyDeleteप्रिय पलाश,
ReplyDelete"तमाम असुविधाओं के बीच
भूल जाते हैं
जलते कोयले की धधक
नथुनों में फसी काली धूल
सूदखोरों का आतंकी चेहरा
मजदूर यूनियन की जबरन वसूली
होती है उनके चेहरे पर
गाँव जाने की ख़ुशी
खेतों की गंध
फसल की महक
त्यौहार की चमक
और जीवन की इस वार्षिक यात्रा का
स्वयं उत्सव होता है
पहला पड़ाव धनबाद स्टेशन"
समाज में पिछड़े कहे जाने वाले लोगों के प्रति आपके सरोकारों से अभिभूत हूँ. जिन्होंने हमें सफलता की डगर पर डाला,उन्हें ही हमने हिकारत भरी नज़रों से देखा है. लेकिन उनमें बसे जीवन मूल्यों,जीवन के प्रति लगाव व सम्मान आज उन्हें भीड़ का हिस्सा बनानेवालों के हिस्से नहीं आया है.इसे बिडम्बना कहें या मानवीय त्रासदी सदा से ही नींव की ईंट को कंगूरे का सम्मान नहीं मिला है. यह बहुत त्रासद है कि ऐसे लोगों को हमेशा हाशिये पर रखा गया जिन्हें सिर माथे पर बिठाया जाना चाहिए था. आज तो इस देश का हर बड़ा शहर,महानगर इस स्थिति की चपेट में है. दिल्ली के स्टेशनों का हाल तो और भी बुरा है.बहुत ही सामयिक एवं सटीक प्रस्तुति के लिए बधाई.
राजीव
achchi abhvyakti ke liye sadhuwad
ReplyDeleteधनबाद के स्टेशन का दृश्य जीवंत कर दिया ...
ReplyDeleteयात्रा करते हुये आपने अनुभव कविता मे कहने का सुन्दर प्रयास। आपने पूरी तस्वीर खींच दी। शुभकामनायें।
ReplyDeleteपलाश भी धनबाद स्टेसन के बहाने आपने मजदूरों के घर वापसी के उत्साह का अच्छा चित्रण किया है .. बहुत बढ़िया..
ReplyDeleteपलाश भाई,कविता का कटेंट अच्छा है और प्रभावी है। पर कविता में संपादन की जरूरत है।
ReplyDelete*
पहली बात रेल्वे की उदघोषणा और आपके द्वारा दी जा रही जानकारी में अंतर समझ नहीं आता।
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दूसरी बात आप पहले मर्द और औरतें कहते हैं । फिर कहते हैं कि पत्नी और बच्चों का हाथ थामे। यहां पत्नी की जरूरत शायद नहीं है।
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तीसरी बात पेटियां अल्युमिनियम की नहीं होतीं हैं। वे टीन की होती हैं ऐसी मेरी जानकारी है। और अब तो शायद वे भी नहीं होतीं। वीआईपी टाइप सस्ते सूटकेस जिनमें रस्सी बंधी होती है,होते हैं।
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चौथी बात शायद गांव में फसल तो उनका इंतजार नहीं कर रही होती है। फसल होती तो शायद वे यहां नहीं आते।
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बहरहाल आप लगातार जिस तरह का कथ्य चुन रहे हैं वह बहुत अच्छा है। बधाई।
होती है उनके चेहरे पर
ReplyDeleteगाँव जाने की ख़ुशी....lagata hai pardesi ho.
bahut sunder.
पलाश भाई! आज बस एक ही शब्द है मेरे पास.. गज़ब!
ReplyDeleteक्या गजब किया है आपने ...पूरा चित्र उभर आया ...शुक्रिया
ReplyDeleteकभी चलते -चलते पर भी दर्शन दें ...आपका स्वागत है
सुन्दर भाव और अभिव्यक्ति के साथ बेहतरीन प्रस्तुती! बधाई !
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