Monday, November 29, 2010

धनबाद स्टेशन

(कभी कोयला मजदूरों को अपने गाँव घर जाते देखिये. उनका उत्साह देखते बनता है. उनके इस उत्साह का गवाह होता है धनबाद स्टेशन. मजदूरों के उत्साह को समर्पित यह कविता - 'धनबाद स्टेशन' )


मौर्या एक्सप्रेस
जो इन दिनों हटिया रांची से चल कर
गोरखोपुर तक जाती है
अब प्लेटफार्म नंबर सात पर आएगी, की
इस उद्घोषणा के साथ ही
अलमुनियम की पेटी उठाये
सैकड़ों औरत और मर्द
भागते हैं
कुछ उपरी पुल से
कुछ फांद कर  रेलवे लाइन
उठाकर अलमुनियम की पेटी
पानी का बोतल
हाथ में पकडे पत्नी और बच्चों का हाथ .

तमाम असुविधाओं के बीच
भूल जाते हैं
जलते कोयले की धधक
नथुनों में फसी काली धूल
सूदखोरों का आतंकी चेहरा
मजदूर यूनियन की जबरन वसूली
होती है उनके चेहरे पर
गाँव जाने की ख़ुशी
खेतों की गंध
फसल की महक
त्यौहार की चमक
और जीवन की इस वार्षिक यात्रा का
स्वयं उत्सव होता है
पहला पड़ाव धनबाद स्टेशन

इस से पहले कि
मौर्या एक्सप्रेस का उत्सव शांत हो
आ जाती है
गंगा दामोदर जो जाती है गया होकर पटना
और फिर से उत्सव मय हो जाता है
धनबाद स्टेशन का दूसरा प्लेटफार्म .

Tuesday, November 9, 2010

केंदुआ बाज़ार

(धनबाद मुख्यालय से लगभग २० किलो मीटर पश्चिम में बोकारो के रास्ते में एक  छोटा सा क़स्बा हुआ करता था केंदुआ. रविवार को यहाँ साप्तहिक बाज़ार  लगा करता था. जो कि लाखों कोयला मजदूरों के लिए साप्ताहिक मनोरंजन और जरुरत की चीज़ों के लिए एक मात्र स्थान था. समय के साथ नहीं चल पाया केंदुआ बाज़ार और अब नहीं है. बाज़ार का विस्थापन मजदूरों के विस्थापन के साथ गहराई के साथ जुड़ा है. केंदुआ बाज़ार को समर्पित यह कविता. )


केंदुआ बाज़ार
अब नहीं लगेगा
जब लिया गया था
यह फैसला
कोयला भवन में
फैसले का प्रारूप
किया गया था तैयार
राजधानी में
कारपोरेट दफ्तर में
कुछ  राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय
कुछ राजनैतिक  और गैर राजनैतिक  दवाब में

तैयार की गई थी
एक रणनीति
मजदूरों से दूर रखने को
उनकी जरूरतें
दूभर करने को
उनका जीवन
केंदुआ बाज़ार
जो जीवन रेखा थी
काट दी गई

केंदुआ बाज़ार
जो धड़कता था
कोयला मजदूरों के ह्रदय में
बंद कर दिया गया
इसके साथ ही
छिन गए रोजगार
हजारों हाथों से
निर्भर हो गए मजदूरों के चूल्हे
बड़ी चमकीली दुकानों पर
और बदल गयी
अर्थव्यवस्था
घर की
जेब की
केंदुआ बाजार के बंद होते ही

जब बिलख रहा था
केंदुआ बाज़ार
जश्न मना रहे थे
अफसर
नेता
ट्रेड यूनियन
और व्यापारी वर्ग

देश में कई और
केंदुआ बाज़ार
अभी  होंगे बंद
मनेगा  जश्न
आत्म-निर्भरता बदलेगी
निर्भरता में

सुना हैं लोकतंत्र में
ऐसे उत्सव अभी जारी रहेंगे .

Monday, November 1, 2010

सौ बीघा

(धनबाद मुख्यालय से कोई पंद्रह किलोमीटर दूर कुसुंडा क्षेत्र में एक कालोनी हुआ करता था सौ बीघा. वहीँ कोयले खदानों, कोयले, पुटुष की झाड़ियों, बारूद घर, बत्ती घर, चानक (जहाँ से कोयला काटने वाले मजदूर धरती के अन्दर जाते हैं ) आदि के बीच पला बढ़ा. अब सौ बीघा नहीं है. उसी सौ बीघा को समर्पित यह कविता .)


















सौ बीघा
नहीं पता
किसने कब दिया तुम्हें
यह नाम
लेकिन तुम्हार विस्तार
कहीं अधिक था
तुम्हारे नाम से.

तुम्हारी कोख में
हर वक्‍त पलती थीं
हजारों जिंदगियां
धौरों* में बटे तुम
वास्तव में एक ही थे
एक ही रक्त प्रवाहित होता था
और साँसें भी एक साथ चलती थीं

ऊपरी धौरे से
निचले धौरे के बीच
एक ही हवा बहती थी

एक ही ख़ुशी से
खुश होते थे तुम
जैसे पगार के दिन

हरा/दिवाली/होली/ईद में
एक ही रंग में रंगे होते थे तुम


निचले धौरे के सबसे आखिर में
था एक माजर
पहली बार कव्‍वाली सुनी थीं वहीं
और
चैता/विरहा/रामलीला और
परदे वाला सिनेमा

सब याद हैं मुझे


चानक के
बड़े बड़े चक्कों के शोर से
सदा उनींदा रहता था
सौ बीघा 



बत्ती घर के
रैकों पर चार्ज होती
हजारों बत्तियां
युद्ध के मैदान में हथियार सी लगती थी
उनकी जांच करते और
उनके नंबर नोट करते
बत्ती बाबू
सौ बीघा के हर घर की
मांग के जैसे सिन्दूर थे
क्योंकि खदान के भीतर
बत्ती बुझ जाने का मतलब होता था
जिन्दगी का बुझ जाना  



तुम्हारे बीचो बीच
हुआ करता था
एक बारूद घर
जहाँ मनाही थी
जाने की
रहस्य ही बना रहा
वह बारूद घर
ख़त्म होने तक


याद करो
पंडित स्कूल
और शनिवार की आखिरी कक्षा
जहां हुआ करता था
सांकृतिक कार्यक्रम
अपनी पहली कविता
वहीं सुनायी थी मैंने

स्कूल के पीछे
शिव मंदिर के
पंडित जी की छोटी बेटी
मुस्‍कराती थी  
शर्माती थी
मुझे देखकर


जब खबर आयी थी कि
निचला धौरा  नहीं रहेगा
इतना रोया था समूचा सौ बीघा
कि कई दिनों तक
नहीं जला था कोई चूल्‍हा

लेकिन
कहाँ चलता है
इस देश में
मजदूरों का राज जो
चलता सौ बीघा में



झोपड़ियां उजड़ी
टीन टप्पर समेत
लादे गए लोग
ट्रकों में और
बसा देने के नाम पर 

उजाड़ दिए गए

जहाँ हँसी गूंजती थी
बुलडोज़र घरघराने लगे
नहीं रहा निचला धौरा
फिर भी तुम मूक

बने रहे सौ बीघा ही

ऐसा ही कुछ

ऊपर धौरा के साथ भी हुआ
अब तो नाम भी
नहीं रहा तुम्हारा

बस यादें हैं
सौ बीघे की
बारूद घर की
स्कूल की
माजर कव्वाली  की 
चैता की
विरहा की
खदानों की कोख में बिताये बचपन की
बत्ती बाबू की जो
खादान के भीतर
बत्ती ख़राब होने की घटना के बाद से
कभी नहीं दिखे किसी को
और
शर्माने वाली लड़की की

आज जब
याद आ रही है तुम्हारी
सौ बीघा
सोचता हूँ
कितना विशाल था
तुम्हारा ह्रदय 
कई सौ बीघे में फैला हुआ

(*धौरों : बस्तियों /चानक : वह स्थान जहाँ से मजदूर कोयला खादान में प्रवेश करते हैं)