१.
मेड पर
खड़े हो जब किसान
करते हैं प्रार्थना
जेठ की भरी दुपहरी में
तब जाकर होता है
आषाढ़ गीला
२.
ओसारे पर
जेठ की दुपहरी के
एकांत में
जब बात करती है
परदेश बसे पिया से
मन ही मन
धन-रोपनी की करती है
कल्पना
तब जा के आता है
आषाढ़ गीला
३
जब चिलचिलाती धूप में
पेड़ की गुमस छाव में
नोच रहा होता है
वह अपनी घमौरिओं को
ताड़ के पंखे के डंडे से
जलन की टीस से जो
निकलती है एक एक आह
तब जा कर होता है
आषाढ़ गीला
४.
जब पनघट पर
बाल्टी के साथ लगी डोरी
पड़ जाती है छोटी
बढ़ने लगता है
प्यास का आकार
तब जाकर
पिघलता है आकाश
होता है
आषाढ़ गीला