Monday, December 27, 2010

ईस्ट बसुरिया

(धनबाद, झारखण्ड से कोई १५ किलोमीटर दूर ईस्ट बसुरिया में हर साल अप्रैल में शहीद मेला मनाया जाता है लेकिन कम ही लोगों को पता है इसके पीछे की मजदूरों के संघर्ष की कहानी. उन्ही अनाम मजदूर के संघर्ष के नाम समर्पित यह कविता. )


सत्ता के परिवर्तन
राज्य का  बंटवारा
चुनाव क्षेत्रों के परिसीमन
जन प्रतिनिधियों के चुने जाने /बदले जाने
जिलाधिकारियों की तैनाती के ब्योरे के बीच
नहीं है दर्ज ईस्ट बसुरिया का नाम
किसी सरकारी पंजिका में
न ही किसी इतिहास की किताब में
ताकि आने वाली पीढी
भूल जाये कि किया जा सकता है संघर्ष आज भी

कि हजारों मजदूर
आज भी कर सकते हैं
भूख हड़ताल मर जाने तक
छीने जाने पर हक़
और जरुरत पड़ने पर
बना सकते हैं अपने औजारों को
हथियार अपनी रक्षा में
नहीं बताई जानी है यह बात नयी पीढी को
इसलिए भी फाड़ दिया गया है
ईस्ट बसुरिया का पन्ना
मजदूर इतिहास की किताबों से

एक कोलियरी भर ही तो था
ईस्ट बसुरिया
जहाँ अपनी जान बचाने के लिए मजदूरों ने
जाने से मना किया था
पानी भरी खदान में
इतना हक़ तो बनता ही था
जबरन मौत के मुंह में धकेले जाने पर
और जहाँ मजदूरों के हक़ की लड़ाई लड़ने वाले संघ
बिक जाएँ कोयले के भाव
अपनी लड़ाई लड़ना तो अधिकार था
ईस्ट बसुरिया का,
अधिकार के प्रति जागरूकता की आग
नयी पीढी तक ना पहुंचे
इसलिए भी बुझा दी गई है
ईस्ट बसुरिया के नाम की मशाल

कुछ डर भी गए तो क्या
कुछ भेदिया बन गए तो क्या
कुछ भूखे मरे तो क्या
कुछ मार दिए तो क्या
इतिहास के पन्नो में दर्ज नहीं भी हैं तो क्या
जीत तो हुई ईस्ट बसुरिया की

दशकों बाद भी आज
मनाता है शहीद दिवस हर साल
ईस्ट बसुरिया
उन शहीदों के नाम
जो नहीं हैं दर्ज
किसी सरकारी पंजिका /इतिहास की किताबों में .

Saturday, December 11, 2010

उलगुलान

(उलगुलान भगवान् बिरसा द्वारा अंग्रेजो के विरुद्ध चलाया गया विरोध था. जिसके परिणाम स्वरुप जनवरी १९०० में भगवान् बिरसा को अंग्रेजो ने धोखे से गिरफ्तार कर लिया था और जेल में उनकी हत्या कर दी गई थी . अंग्रेजो ने कोलरा को उनकी मृत्यु का कारण बताया.. झारखण्ड में आज फिर से परिस्थिति विषम है. एक और उलगुलान की जरुरत है. )


सिंहभूम 
मानभूम
पलामू
ये सब नहीं है
मात्र स्थानों के नाम
प्रतीक हैं 
जहाँ से चिंगारी चली थी
बचाने को जंगल/जन-अस्मिता  

पलाश के दहकते फूल
बरसे थे अंगारे बन 
आह्वान पर 
बाबा बिरसा के 
जब हुआ था
उलगुलान 
क्रांति-बीज 
बोया गया था

पुनः हो रहे हैं 
वैसे ही समझौते 
फिर से विस्थापित हैं
बिरसा की संताने 
तैयारी है युद्ध की जंगलों के खिलाफ
धरती की कोख को गिरवी रखने के लिए 
पलाश के फूल 
कर रहे हैं एक और आह्वान
हो एक और उलगुलान 
इस बार अपनों के बीच ही सही 
अपनों के विरुद्ध ही सही 
उलगुलान 

Saturday, December 4, 2010

यह शोक मानाने का समय है दामोदर

(दामोदर नदी को कभी बंगाल का शोक कहा जाता था. बंगला में इसे दमुदा भी कहते थे. दामू का तात्पर्य पवित्र और डा का अर्थ जल है.. लेकिन दामोदर में अब ना तो जल है ना यह पवित्र रही. अब बंगाल के बड़े हिस्से में दशको से बाढ़ नहीं आयी क्योंकि दामोदर में नहीं रहा जल. इसलिए बंगाल के बड़े हिस्से में धान की खेती प्रभावित हो रही है. अस्तित्वहीन होते दामोदर को समर्पित यह कविता आपके समक्ष प्रस्तुत है )














दामोदर
नहीं रहे तुम 
अब शोक-नदी 
क्योंकि प्रवाह में तुम्हारे
नहीं है बल 
ना ही धारा में
रहा जल 

बराकर 
कोनार
बोकारो
जमुनिया
हहारो 
ये कुछ नदिया थीं 
जो बनाती थी
तुम्हारा अस्तित्व
लुप्त हो रही हैं आज स्वयं 
वे क्या देंगी तुम्हे
अस्तित्व 
शोक मनाओ तुम 

अब बाढ़ नहीं लाते तुम
बंगाल के शोक नदी भी नहीं रहे
लेकिन पूछो वर्दमान के पीले पड़े खेतो से
दशक बीत गए
बदली नहीं मिटटी
लाये जो नहीं तुम बाढ़ 
तुम्हारे तट पर
अब नहीं होती तुम्हारी प्रार्थना
नहीं मांगते लोग
तुमसे नाव पार करने को रास्ता
तुम्हरे ऊपर बने पुलों की नीव
दिखने लगी है दामोदर

अब तुम 'दामुदा' नहीं कहे जाते 
नहीं जो रहे तुम दामू (पवित्र) 
न ही रहा तुम में दा (जल) 
बाँध कर तुम्हे 
कहा गया था
होंगे प्रकाशमान
गाँव, पहाड़, खेत खलिहान
नारों में रह गए
सब के सब
हरियाली जहाँ पसारने का
दिया गया था सपना
आज लाल ही लाल है
माटी/पहाड़/झार 

यह शोक मानाने का समय है
दामोदर/क्योंकि नहीं रहे तुम
नदी- अविभाजित बंगाल के शोक

Monday, November 29, 2010

धनबाद स्टेशन

(कभी कोयला मजदूरों को अपने गाँव घर जाते देखिये. उनका उत्साह देखते बनता है. उनके इस उत्साह का गवाह होता है धनबाद स्टेशन. मजदूरों के उत्साह को समर्पित यह कविता - 'धनबाद स्टेशन' )


मौर्या एक्सप्रेस
जो इन दिनों हटिया रांची से चल कर
गोरखोपुर तक जाती है
अब प्लेटफार्म नंबर सात पर आएगी, की
इस उद्घोषणा के साथ ही
अलमुनियम की पेटी उठाये
सैकड़ों औरत और मर्द
भागते हैं
कुछ उपरी पुल से
कुछ फांद कर  रेलवे लाइन
उठाकर अलमुनियम की पेटी
पानी का बोतल
हाथ में पकडे पत्नी और बच्चों का हाथ .

तमाम असुविधाओं के बीच
भूल जाते हैं
जलते कोयले की धधक
नथुनों में फसी काली धूल
सूदखोरों का आतंकी चेहरा
मजदूर यूनियन की जबरन वसूली
होती है उनके चेहरे पर
गाँव जाने की ख़ुशी
खेतों की गंध
फसल की महक
त्यौहार की चमक
और जीवन की इस वार्षिक यात्रा का
स्वयं उत्सव होता है
पहला पड़ाव धनबाद स्टेशन

इस से पहले कि
मौर्या एक्सप्रेस का उत्सव शांत हो
आ जाती है
गंगा दामोदर जो जाती है गया होकर पटना
और फिर से उत्सव मय हो जाता है
धनबाद स्टेशन का दूसरा प्लेटफार्म .

Tuesday, November 9, 2010

केंदुआ बाज़ार

(धनबाद मुख्यालय से लगभग २० किलो मीटर पश्चिम में बोकारो के रास्ते में एक  छोटा सा क़स्बा हुआ करता था केंदुआ. रविवार को यहाँ साप्तहिक बाज़ार  लगा करता था. जो कि लाखों कोयला मजदूरों के लिए साप्ताहिक मनोरंजन और जरुरत की चीज़ों के लिए एक मात्र स्थान था. समय के साथ नहीं चल पाया केंदुआ बाज़ार और अब नहीं है. बाज़ार का विस्थापन मजदूरों के विस्थापन के साथ गहराई के साथ जुड़ा है. केंदुआ बाज़ार को समर्पित यह कविता. )


केंदुआ बाज़ार
अब नहीं लगेगा
जब लिया गया था
यह फैसला
कोयला भवन में
फैसले का प्रारूप
किया गया था तैयार
राजधानी में
कारपोरेट दफ्तर में
कुछ  राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय
कुछ राजनैतिक  और गैर राजनैतिक  दवाब में

तैयार की गई थी
एक रणनीति
मजदूरों से दूर रखने को
उनकी जरूरतें
दूभर करने को
उनका जीवन
केंदुआ बाज़ार
जो जीवन रेखा थी
काट दी गई

केंदुआ बाज़ार
जो धड़कता था
कोयला मजदूरों के ह्रदय में
बंद कर दिया गया
इसके साथ ही
छिन गए रोजगार
हजारों हाथों से
निर्भर हो गए मजदूरों के चूल्हे
बड़ी चमकीली दुकानों पर
और बदल गयी
अर्थव्यवस्था
घर की
जेब की
केंदुआ बाजार के बंद होते ही

जब बिलख रहा था
केंदुआ बाज़ार
जश्न मना रहे थे
अफसर
नेता
ट्रेड यूनियन
और व्यापारी वर्ग

देश में कई और
केंदुआ बाज़ार
अभी  होंगे बंद
मनेगा  जश्न
आत्म-निर्भरता बदलेगी
निर्भरता में

सुना हैं लोकतंत्र में
ऐसे उत्सव अभी जारी रहेंगे .

Monday, November 1, 2010

सौ बीघा

(धनबाद मुख्यालय से कोई पंद्रह किलोमीटर दूर कुसुंडा क्षेत्र में एक कालोनी हुआ करता था सौ बीघा. वहीँ कोयले खदानों, कोयले, पुटुष की झाड़ियों, बारूद घर, बत्ती घर, चानक (जहाँ से कोयला काटने वाले मजदूर धरती के अन्दर जाते हैं ) आदि के बीच पला बढ़ा. अब सौ बीघा नहीं है. उसी सौ बीघा को समर्पित यह कविता .)


















सौ बीघा
नहीं पता
किसने कब दिया तुम्हें
यह नाम
लेकिन तुम्हार विस्तार
कहीं अधिक था
तुम्हारे नाम से.

तुम्हारी कोख में
हर वक्‍त पलती थीं
हजारों जिंदगियां
धौरों* में बटे तुम
वास्तव में एक ही थे
एक ही रक्त प्रवाहित होता था
और साँसें भी एक साथ चलती थीं

ऊपरी धौरे से
निचले धौरे के बीच
एक ही हवा बहती थी

एक ही ख़ुशी से
खुश होते थे तुम
जैसे पगार के दिन

हरा/दिवाली/होली/ईद में
एक ही रंग में रंगे होते थे तुम


निचले धौरे के सबसे आखिर में
था एक माजर
पहली बार कव्‍वाली सुनी थीं वहीं
और
चैता/विरहा/रामलीला और
परदे वाला सिनेमा

सब याद हैं मुझे


चानक के
बड़े बड़े चक्कों के शोर से
सदा उनींदा रहता था
सौ बीघा 



बत्ती घर के
रैकों पर चार्ज होती
हजारों बत्तियां
युद्ध के मैदान में हथियार सी लगती थी
उनकी जांच करते और
उनके नंबर नोट करते
बत्ती बाबू
सौ बीघा के हर घर की
मांग के जैसे सिन्दूर थे
क्योंकि खदान के भीतर
बत्ती बुझ जाने का मतलब होता था
जिन्दगी का बुझ जाना  



तुम्हारे बीचो बीच
हुआ करता था
एक बारूद घर
जहाँ मनाही थी
जाने की
रहस्य ही बना रहा
वह बारूद घर
ख़त्म होने तक


याद करो
पंडित स्कूल
और शनिवार की आखिरी कक्षा
जहां हुआ करता था
सांकृतिक कार्यक्रम
अपनी पहली कविता
वहीं सुनायी थी मैंने

स्कूल के पीछे
शिव मंदिर के
पंडित जी की छोटी बेटी
मुस्‍कराती थी  
शर्माती थी
मुझे देखकर


जब खबर आयी थी कि
निचला धौरा  नहीं रहेगा
इतना रोया था समूचा सौ बीघा
कि कई दिनों तक
नहीं जला था कोई चूल्‍हा

लेकिन
कहाँ चलता है
इस देश में
मजदूरों का राज जो
चलता सौ बीघा में



झोपड़ियां उजड़ी
टीन टप्पर समेत
लादे गए लोग
ट्रकों में और
बसा देने के नाम पर 

उजाड़ दिए गए

जहाँ हँसी गूंजती थी
बुलडोज़र घरघराने लगे
नहीं रहा निचला धौरा
फिर भी तुम मूक

बने रहे सौ बीघा ही

ऐसा ही कुछ

ऊपर धौरा के साथ भी हुआ
अब तो नाम भी
नहीं रहा तुम्हारा

बस यादें हैं
सौ बीघे की
बारूद घर की
स्कूल की
माजर कव्वाली  की 
चैता की
विरहा की
खदानों की कोख में बिताये बचपन की
बत्ती बाबू की जो
खादान के भीतर
बत्ती ख़राब होने की घटना के बाद से
कभी नहीं दिखे किसी को
और
शर्माने वाली लड़की की

आज जब
याद आ रही है तुम्हारी
सौ बीघा
सोचता हूँ
कितना विशाल था
तुम्हारा ह्रदय 
कई सौ बीघे में फैला हुआ

(*धौरों : बस्तियों /चानक : वह स्थान जहाँ से मजदूर कोयला खादान में प्रवेश करते हैं)


Friday, October 29, 2010

झरिया

सुना होगा
मुहावरा आपने
आग से खेलना
लेकिन
हम झारियावाले
आग जी रहे हैं
पीढ़ियों से

आग ओढना
बिछौना आग
आग पर चलना
आग से खेलना
हमारा शौक नहीं है
मजबूरी है
जो अफसर, सरकार, मंत्री के
बदलने के साथ
नहीं बदली
बढ़ती ही गई आग
पेट में
आँखों में
ह्रदय में
और कोयले में

झरिया
जहाँ पीपल के नीचे के हनुमान जी की मंदिर में
कुस्ती लड़ते थे दद्दा
सुना है अंग्रेजो के भी पटक दिया करते थे
जहाँ ठेहुनिया दे के चलना सीखे थे
बाबूजी हमारे
और हम एक धौरा से दुसरे धौरा
साइकिल हांकते रहते थे दिन भर
जिसको हमारे पसीने की गंध का भी पता है
अब नहीं रहेगा
ध्वस्त कर दिया जायेगा झरिया
और झरिया में पलने वाले सपने

झरिया
एक शहर नहीं है
देशवासियों
एक घर है
जो जल रहा है
जो टूट रहा है
बिखर रहा है
विस्थापित  हो रहा है

Thursday, October 28, 2010

काला पत्थर

वह अब भी 
कमर पर बांधता है 
बैटरी
और माथे पर लैम्प 
धरती के सीने को चीर
जाता है ६०० फुट नीचे रोज
जहाँ रात और दिन में
नहीं होता फर्क

उसकी पत्नी 
बारह घंटे 
आज भी
नहीं हंसती
साँसे नहीं लेतीं
उसके लौट आने तक
बच्चों की आँखें 
सूनी  रहती हैं उस दौरान 
और टिकी रहती है
दरवाजे की  सांकल पर

उसके नथुने में
भरा होता गर्द कोयले का
काला स्याह 
थोडा होता है बारूद
जिससे ढीली की जाती है
धरती की कसावट 
निकालने को कोयला

सुना है
दिन फिरने वाले  है
बम्बई में कुछ रिकार्ड टूटे हैं
उनकी कंपनी द्वारा 
बहुत धन जुटाया गया है
देश विदेश से 
लेकिन
सूरज कहाँ निकलता है
कोयले के धुंए के बादलों की ओट से 
सूचकांक के बढ़ने से 
नहीं होती कोई हलचल 
इस तरफ
यहाँ तो रोज ही चीरना है
धरती की छाती

इनकी सूनी आँखों को 
सुना जा सकता है बोलते 
'ब्लैक डायमंड तो बस काला पत्थर है हमारे लिए'