Wednesday, November 30, 2011

शोणित की गंध


जब लेने गया था
अपने गाँव के लिए अनाज 
दी गई  मुझे
ए के ४७ 
कहा गया हथियार बिना
नहीं होगी कोई बात 

जब भी बात की
बिजली पानी सडको की
मुझे थमाया गया 
ग्रेनेड 
समझाया गया
बिना विस्फोट  नहीं सुनता कोई 
रुदन का शोर

कहा खोल दो 
मेरे गाँव में भी स्कूल
लगा दिया गया  पहरा 
पुलिस बल का 

कहा गया सत्ता तक
पंहुचा दो 'मुझे'
रौशनी की किरणे पहुचेंगी 
जंगल जंगल 

और फिर
आया बुलावा 
आओ, बैठो, बात करते हैं
और फिर बदलते हुए तेवर 
कहा गया 
जंगल को जीने का कोई हक़ नहीं 
मुझे लौटने भी नहीं दिया गया 

हे माँ !
जन्म देना 
एक और बच्चे को
जो लड़े मेरे बाद 
लेकर आये थोड़ी रोशनी 
अपने गाँव 
मिटने मत देना 
मेरे शोणित की  गंध को

Saturday, November 26, 2011

सुनो माँ !



बेहतर होता
चटा दी होती नमक
जन्म होते ही

जब नहीं कर सकी ऐसा
तो मेरी शोणित से 
जो रंगी है धरती 
उस पर 
लिख देना 
अपनी थरथराती बूढी उँगलियों से 
मेरा नाम 
फिर से जन्म लेना चाहता हूँ 
क्योंकि अधूरा रह गयी है
मेरी क्रांति 

बस रोना मत
वरना फीका पड़ जायेगा 
मेरे रक्त का रंग 

Thursday, November 24, 2011

झुका दो झंडा


(किसनजी जो माओवादी के बड़े नेता थे, मारे गए. यह कविता उनके लिए तो नहीं लिखी गई थी लेकिन लग रही है इसे पोस्ट कर दूं, उन हजारों कार्यकर्ताओं के लिए जो गुमनाम मर जाते हैं ढोते हुए झंडा. इस कविता से कतई यह समझा न जाये कि मैं किसी खास राजनितिक फ्रंट का समर्थक हूँ . हाँ आम लोगो की लड़ाई के प्रति संवेदनशील जरुर हूँ  )

वह दशको से
ढो रहा है  झंडा 
कुछ बदल जायेगा 
उसका दृढ विश्वास था
उसे लगता था 
गिरा देगा वह 
बड़ी बड़ी 
देशी विदेशी दीवार
अपनी मिटटी पर 
नहीं बनने देगा 
खेत, खलिहान, फैक्ट्री , मजदूरों की कब्र  

जब उसकी मुट्ठियाँ 
लहराती थी
लहराते थे 
हजारो मुट्ठियाँ 
उठ जाती थी 
एक उम्मीद की चिंगारी 
सैकड़ो आँखों में 

धीरे धीरे 
मुट्ठियाँ कम होने लगी 
मुट्ठियों की पकड़ 
ढीली होने लगी 
आँखों में चिंगारी की जगह 
उगने लगे कांटे 
लेकिन उनसे नहीं छोड़ा  झंडा 

अब भी 
गाड देता था वह झंडा
टांग देता था 
पुरानी सुतली से 
घिसा हुआ सूती कपडे पर बना बैनर 
और लहरा देता था हवा में मुट्ठी
पर आज मुट्ठी खुल गई है
उसने नहीं उतारा है बैनर
झंडा अब भी लहरा रहा है

कुछ नहीं किया कभी हमने 
आज झुका तो दो झंडा 
उसके नाम पर 

Wednesday, November 23, 2011

रंगभेद


(आई एम् ऍफ़ के भूतपूर्व अध्यक्ष स्ट्रास कह्न  और क्रिकेट पत्रकार पीटर रौबक के लिए )

मिट रहा है
रंगभेद 
दुनिया भर में 
एक ही रीत से 
कुछ लोग
कुछ देश 
विशेष रूप से 
प्रतिबद्ध हैं 
दिन भर के 
बड़े बड़े भाषणों 
और गहमागहमी की 
थकान के बाद 
शयनकक्ष की
बत्तियां बंद होने के बाद
मिट जाता है 
सब रंगभेद. 

तीसरी दुनिया में 
दिन होते हैं स्याह 
रातें होती हैं 
कुछ अधिक रंगीन 
रंगभेद मिटने की साक्षी के तौर पर