Thursday, November 24, 2011

झुका दो झंडा


(किसनजी जो माओवादी के बड़े नेता थे, मारे गए. यह कविता उनके लिए तो नहीं लिखी गई थी लेकिन लग रही है इसे पोस्ट कर दूं, उन हजारों कार्यकर्ताओं के लिए जो गुमनाम मर जाते हैं ढोते हुए झंडा. इस कविता से कतई यह समझा न जाये कि मैं किसी खास राजनितिक फ्रंट का समर्थक हूँ . हाँ आम लोगो की लड़ाई के प्रति संवेदनशील जरुर हूँ  )

वह दशको से
ढो रहा है  झंडा 
कुछ बदल जायेगा 
उसका दृढ विश्वास था
उसे लगता था 
गिरा देगा वह 
बड़ी बड़ी 
देशी विदेशी दीवार
अपनी मिटटी पर 
नहीं बनने देगा 
खेत, खलिहान, फैक्ट्री , मजदूरों की कब्र  

जब उसकी मुट्ठियाँ 
लहराती थी
लहराते थे 
हजारो मुट्ठियाँ 
उठ जाती थी 
एक उम्मीद की चिंगारी 
सैकड़ो आँखों में 

धीरे धीरे 
मुट्ठियाँ कम होने लगी 
मुट्ठियों की पकड़ 
ढीली होने लगी 
आँखों में चिंगारी की जगह 
उगने लगे कांटे 
लेकिन उनसे नहीं छोड़ा  झंडा 

अब भी 
गाड देता था वह झंडा
टांग देता था 
पुरानी सुतली से 
घिसा हुआ सूती कपडे पर बना बैनर 
और लहरा देता था हवा में मुट्ठी
पर आज मुट्ठी खुल गई है
उसने नहीं उतारा है बैनर
झंडा अब भी लहरा रहा है

कुछ नहीं किया कभी हमने 
आज झुका तो दो झंडा 
उसके नाम पर 

5 comments:

  1. कुछ नहीं किया कभी हमने
    आज झुका तो दो झंडा
    उसके नाम पर

    गहरी संवेदना उभर आई है इस रचना में .....!

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  2. कुछ नहीं किया कभी हमने
    आज झुका तो दो झंडा
    उसके नाम पर ..bahut marik lekin katu satya...

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  3. बहुत ही संवेदनशील ... न जाने कितने ही लोग ऐसा झंडा थामें हैं न्याय की तलाश में ...

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  4. कुछ नहीं किया कभी हमने
    आज झुका तो दो झंडा
    उसके नाम पर

    बेजोड़ रचना...बधाई

    नीरज

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  5. पलाश जी ऐसा झंडा उठाये कई मजदूर नेता को देखा है मैंने करीब से.. इस लिए इस संवेदना से जुड़ा हुआ महसूस कर रहा हूं.. कविता अच्छी है...

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