जब लेने गया था
अपने गाँव के लिए अनाज
दी गई मुझे
ए के ४७
कहा गया हथियार बिना
नहीं होगी कोई बात
जब भी बात की
बिजली पानी सडको की
मुझे थमाया गया
ग्रेनेड
समझाया गया
बिना विस्फोट नहीं सुनता कोई
रुदन का शोर
कहा खोल दो
मेरे गाँव में भी स्कूल
लगा दिया गया पहरा
पुलिस बल का
कहा गया सत्ता तक
पंहुचा दो 'मुझे'
रौशनी की किरणे पहुचेंगी
जंगल जंगल
और फिर
आया बुलावा
आओ, बैठो, बात करते हैं
और फिर बदलते हुए तेवर
कहा गया
जंगल को जीने का कोई हक़ नहीं
मुझे लौटने भी नहीं दिया गया
हे माँ !
जन्म देना
एक और बच्चे को
जो लड़े मेरे बाद
लेकर आये थोड़ी रोशनी
अपने गाँव
मिटने मत देना
मेरे शोणित की गंध को
lachaar vivash yuva ... waqt ki aandhi me hatprabh
ReplyDeleteअलग मिजाज़ कि कविता... सुन्दर
ReplyDeleteप्रिय पलाश,
ReplyDeleteतुम्हारे मन तड़प,तुम्हारे भीतर के आक्रोश को मैं समझ सकता हूँ.समझ सकता हूँ उनके लिए तुम्हारे सरोकार को.लेकिन बदलाव समाज को जागृत करके लाने में ही सबकी भलाई है.बन्दूक से कुछ हासिल नहीं होगा.अन्ना की तरह इस व्यवस्था के पैरोकारों को भरे बाजार नंगा करने की जरूरत है.बन्दूक की संस्कृति में भूख की परिभाषा ही बादल जाती है जो त्रासद है.तुम्हारे विषय हमेशा की तरह सामाजिक सरोकारों से जुड़े रहे हैं .सुन्दर.
नक्सलवादी ऐसे ही अपने आप नहीं बनते ..बाना दिए जाते हैं ...
ReplyDeleteअच्छी प्रस्तुति
jo ban gaye, wo to beet gaya... ab to badlo:)
ReplyDeletebehtareen rachna................
Ye ladaai ladni hogi ... Apne liye n sahi aane waale bhavishy ke liye .... Aakrosh jagaati rachna ...
ReplyDeleteyuva ki vivashta jise jabran khuni kraanti mein jhonk diya ja raha hai aur isase bahar aane ke raaste band kar diye gaye hain. saamajik sarokar se judi sashakt rachna. shubhkaamnaayen.
ReplyDeleteसुंदर रचना!
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